लोक हितकारी राज्य एवं समाजवादी समाज की स्थापना में राज्यपालों का दायित्व- संक्षेप

Dr. Alekha Kumar Sahu

 

Sr. Assistant  Professor, School of Studies in Law, Pt. Ravishankar Shukla  University, Raipur  Chhattisgarh

*Corresponding Author E-mail: alekh.ku.sahu@gmail.com

 

ABSTRACT:

संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पितलोक-हितकारी राज्यएवंसमाजवादी समाजकी स्थापना का आदर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कि सरकार नीति-निर्देषक-सिद्धांत में उल्लेखित उद्देष्य एवं लक्ष्य को लागू करने का प्रयत्न करे, एवं कार्यपालिका उसका सही मुल्यांकन करे।

 

KEYWORDS: समाजवादी समाज, स्थापना

 

 

 

संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पितलोक-हितकारी राज्यएवंसमाजवादी समाजकी स्थापना का आदर्ष तभी प्राप्त किया जा सकता है जब कि सरकार नीति-निर्देषक-सिद्धांत में उल्लेखित उद्देष्य एवं लक्ष्य को लागू करने का प्रयत्न करे, एवं कार्यपालिका उसका सही मुल्यांकन करे।

 

यदि राज्यपाल का पद कायम रखना ही है तो उनकी उपयोगिता पर भी विचार करना होगा क्या केवल मंत्रिमंडल द्वारा पारित विधेयकों और औपचारिक रूप से हस्ताक्षर करने, राजभवन में देषी-विदेषी अतिथियों का स्वागत करने, विधानमंड़ल सत्र में सरकार का तैयार किया हुआ अभिभाषण पढ़ने और राष्ट्रीय दिवस पर परेड की सलामी लेने के लिए राज्यपाल होना चाहिए ?

 

संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त राज्यपाल भी मन से दल-निरपेक्ष नहीं हो पाते, वे सत्तारूढ़ दल के प्रति झुके रहते है, केंद्र अपने एजेंट के रूप में उनसे काम लेता है, यह कितना विचित्र लगता है, जब कोई राज्यपाल अपने पद से हटने के बाद फिर किसी राज्य का मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री बनकर दलीय राजनीति करने लगे. केंद्र सरकार नेताओं को ऐसे ही शतरंज के मोहरों की तरह नचाती है. इसके अलावा राज्यपाल रखना ही है तो क्यों नहीं उस पद पर शारीरिक मानसिक रूप से सक्षम अनुभवी, आकर्षक व्यक्ति को आसीन किया जाए. राजभवन को वृद्धाश्रम या आरामगाह बनाने का कोई प्रयोजन हो बल्कि राज्यपालों को स्वयं ही लोक हितकारी कार्यो की जमीनी समीक्षा करनी होगी।

 

शिक्षा व्यवस्था की निगरानी करना राज्यपालों की महती दायित्व होना चाहिये, अगर कोई राज्यपाल अपने पांच वर्षो के कार्यकाल में प्रतिमाह दो स्कूलों, दो कालेजों को निरीक्षक करने का प्रोग्राम बना ले तो निष्चय ही उन स्कूलों की भौतिक कायाकल्प के साथ वहाँ की शिक्षा व्यवस्था का स्तर ऊँचां उढ जायेगा। इसी तरह शासकीय अस्पतालों का निरीक्षण करने संकल्प राज्यपाल ले लें तडे निष्चय ही लोक हितकारी प्रभाव अपने स्तर से उपर उठ जायेगा। राज सरकार की लोकहितकारी योजनायें जिसमें केन्द्रीय योजनाएं भी शामिल हो की निरीक्षण करने से उन योजनाओं का सही मूल्यांकन हो सकेगा। यद्यपि यह काम कार्यपालिका को शासकीय योजनाओं के सही परीचालन का दायित्व निर्वहन करना चाहिए परनतु जमीनी सत्यापन से ऐसा प्रतीत होने लगा है  कि शासकीय योजनाएँ वास्तविक व्यक्ति के लाभ से कोसो दूर है। इसलिए कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते राज्यपाल को उसकी समय-समय पर निगरानी करते रहना चाहिए एवं यह निगरानी राज्यभवन में बैठकर सिर्फ कागजी नही होना चाहिए, बल्कि ऐसी योजनाओं का भौतिक मुल्याकन किया जाना चाहिए।  

 

राज्यपालों का दायित्व एवं उनकी संदिग्ध भूमिकाएँ:-

आए दिनों कतिपय राज्यपालों की भूमिका पक्षपातपूर्ण और संदिग्ध रही हैं. किन्तु कुछ समय से तो अनेक राज्यपालों की पक्षपातपूर्ण और संदिग्ध भूमिकाओं के ज्वलंत उदाहरण सामने रहे हैं. कुछ समय पूर्व गोवा और झारखंड के राज्यपाल अपनी पक्षपातपूर्ण और संदिग्ध भूमिकाओं के लिए बहुचर्चित रहे और बाद में बिहार के राज्यपाल ने तो सारी सीमाएँ लाँघ दी. उनके कृत्य को तो सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वथा असंवैधानिक ठहरा दिया और यदि संविधान मंे उपयुक्त संषोधन किया गया तो यह सिलसिला चलता ही रहेगा. आखिरकार, ऐसा क्यों हो रहा हैं ? संविधान का मंतव्य यह है कि राज्यपाल दलगत राजनीति से सर्वथा दूर रहें और संविधान का निर्वहन करें किंतु ऐसा नहीं हो रहा है. इसका मूल कारण राज्यपालों की नियुक्ति तथा उनकी बर्खास्तगी में ओछी और कृत्सित दलगत राजनीति का हावी होना है ऐसे तो संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति  करते हैं तथा राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 156 (1) के अनुसार अपने पद पर केवल तब तक बने रहे सकते हैं, जब तक राष्ट्रपति चाहते हैं. संविधान के अनुच्छेद 156 (3) के अनुसार राज्यपाल का कार्यकाल पाँच वर्षो का होता है. किंतु इस अनुच्छेद के परंतुक् में इस बात का प्रावधान है कि कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात् भी राज्यपाल अपने पद पर तब तक बने रहेंगे जब तक कि उनके उत्तराधिकारी राज्यपाल का पद ग्रहण नही कर लेते.

 

किन्तु क्या वास्तव में राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगती राष्ट्रपति करते हैं ? क्या राज्यपाल अपने पद पर केवल तब तक बने रह सकते है जब तक राष्ट्रपति ऐसा चाहते है? सर्वथा नहीं. भारतीय संविधान के अनुसार कहने को तो भारतीय संघ अर्थात् भारत शासन की कार्यपालिका के समस्त अधिकार राष्ट्रपति में निहित होते हैं. (अनुच्छेद 63 (1) ) किंतु राष्ट्रपति वास्तव में भारत-षासन की कार्यपालिका के मात्र उपाधिधारी या नामधारी (टिट्यूलर) समुख होते है। 42वें संविधान संषोधन (1976) द्वारा शोधित अनुच्छेद 74 (1) के अनुसार उन्हें संघीय मंत्री परिषद अर्थात केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुरूप ही कार्य करना होता है जिस प्रकार यूनाइटेड किंगडम (ग्रेट ब्रिटेन)के संविधान जिस पर भारतीय संविधान बहुत हद तक आधारित है, के अनुसार वहाँ के क्राउन (राजा या रानी जो भी राज सिंहासन पर आरूढ़ हो) को अपनी मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुरूप ही कार्य करना होता है. 1978 में किए गए 44 वें संविधान संषोधन द्वारा अनुच्छेद 74 (1) में एक परंतुक जोड़ा गया जिससे इस बात का प्रावधान है कि यदि चाहे तो राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिपरिषद को अपनी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं और पुनर्विचार करने के बाद भी यदि मंत्रिपरिषद अपनी सलाह पर अडिग रहती है तो राष्ट्रपति को अन्ततोगत्वा मंत्रिपरिषद की सलाह को मानना ही होगा, यह उनकी बाध्यता है, यह परंतुक भी ब्रिटिष संविधान की पंरपरा से लिया गया है. अतः स्पष्ट है कि वास्तव में राज्यपालों की नियुक्ति केंद्रीय मंत्रिपरिषद ही करती है तथा राज्यपाल अपने पद पर केवल तक तक बने रह सकते है जब तक केद्रीय मंत्रिपरिषद ऐसा चाहती है. और यही वास्तविकता सारी विसंगतियों और समस्याओं की जननी है.‘‘1’’

 

केंद्रीय मंत्रिपरिषद बहुधा अपने दल के हितों को सर्वोपरि रखते हुए राज्यपालों की नियुक्ति करता है, राज्यपाल उन लोगों को नियुक्त किया जाता है जो या तो केंद्र में सत्तारूढ दल के सदस्य हों या मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य के चहेते हों जो केंद्र सरकार के इषारे पर चलें. आज-कल राज्यपाल का पद एक प्रकार से पुरस्कार सा बन गया है जिसे देकर अपनों को पुरस्कृत और उपकृत किया जाता है, बहुधा ऐसा भी होता है कि जब केंद्र में सत्तारूढ़ दल का कोई महत्वपूर्ण और दल के हाईकमान के प्रति वफादार व्यक्ति लोकसभा या विधानसभा चुनाव हार जाता है तो मंत्रिपरिषद उसे सांत्वना पुरस्कार के रूप में किसी राज्य के राज्यपाल का पद दे देता है कई बार ऐसा भी होता है कि जब किसी राज्य में केंद्र में सत्तारूढ़ दल के दो वजनदार व्यक्ति मुख्यमंत्री पद के लिए दावा करने लगते हैं और तलवार खींचकर आमने-सामने खड़े हो जाते है. तब दल के हाईकमान के लिए विषम परिस्थिति निर्मित हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में दल को अंतर्कलह से उबारने के लिए मंत्रिपरिषद उनमें से अपेक्षाकृत कुछ कम वनज रखने वाले व्यक्ति को सांत्वना पुरस्कार के रूप में किसी राज्य के राज्यपाल का पद दे देता है और दूसरे के मुख्यमंत्री बनने के लिए मार्ग प्रषस्त कर देता है, यदि केन्द्र में कुछ दलों का गठबंधन सत्तारूढ़ हो तो गठबंधन के घटक दल अपने-अपने दलों के लिए राज्यपाल के पदों का कोटा निर्धारित करवा लेते हैं और अपने चहेतों को राज्यपाल बनवा लेते हैं, ऐसा ही कुछ हुआ जब केंद्र मंे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्तारूढ़ था, भारतीय जनता पार्टी के कोटे से तो राज्यपाल बने ही किंतु षिरोमणि अकाली दल, तत्कालीन समता पार्टी तथा द्रविड मुन्नेत्र कषगम भी पीछे नहीं रहे, उन्होंने भी अपने-अपने कोटे से अपनो को राज्यपाल नियुक्त करा लिया. जब इस तरह से राज्यपालों की नियुक्ति होती है तो स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी की कहावत ‘‘ही हू पेज पाइपर हैज ट्यून’’- चरितार्थ होती है इस कहावत का हिन्दी रूपान्तरण है- बीन बजाने वाला उसी की पसंद का राग सुनाता है जो उसे पैसा देता है निः संदेह बहुतेरे राज्यपाल ऐसा करते चले रहे है दूसरी ओर जब केंद्र मे ंकोई नया दल या गठबंधन सत्तारूढ़ होता है तो वह अपने विरोधी दल या गठबंधन के शासनकाल में केंद्रीय मंत्रिपरिषद द्वारा नियुक्त राज्यपालों से संविधान के अनुच्छेद 156 (1) का दुरूपयोग करके या तो इस्तीफा माँगता है या उन्हें बेआबरू कर बर्खास्त कर देता है. केन्द्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन के मंत्रिपरिषद ने सत्तासीन होते ही पूर्ववर्ती राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के मंत्रिपरिषद द्वारा नियुक्त राज्यपालों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया. अतः स्पष्ट है कि राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगी अत्यंत ही ओछी तथा कुत्सित दलगत राजनीति के आधार पर होती है कि जनता के हित को ध्यान में रखकर। केंद्र में सत्तारूढ़ राजनैतिक दल अपनी स्वार्थ की पूर्ति में सहायक लोगों को राज्यपाल बनाता है, अनुच्छेद 156 (1) वास्तव में राज्यपालें के सिर पर लटकती तलवार है जिससे आंतकित रहते हुए राज्यपाल बहुधा केंद्र में सत्तारूढ़ राजैनिक दल के हित में संदिग्ध और कभी-कभी असंवैधानिक भूमिकाएं निभाने के लिए कुछ हद तक विवष रहते है,

 

भारत के संविधान निर्माताओं ने इस क्षीण में संभावना को ध्यान में रखते हुए कि कभी किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था चरमरा सकती है. संविधान में अनुच्छेद 356 (1) समाविष्ट किया है जिसके अंतर्गत ऐसी स्थिति में उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. अनुच्छेद 356 (1) में इस बात का प्रावधान है कि यदि राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर अथवा अन्यथा इस बात से संतुष्ट हो जाते है कि उस राज्य में ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है कि उेस राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वे उद्घोषणा द्वारा () राज्य के सभी अथवा कुछ कार्यो को और राज्यपाल के सभी या किन्हीं अधिकारों को अथवा राज्य के विधानसभा के अतिरिक्त राज्य के किसी अन्य निकाय अथवा प्राधिकारी के अधिकारों को अपने हाथ में ले सकते हैं, () वे यह भी घोषित कर सकते हैं कि राज्य की विधानसभा के अधिकारों का क्रियान्वयन संसद द्वारा अथवा उसके प्राधिकार में निष्पादित किया जाएगा, और () वे ऐसे आनुषंगिक तथा अनुवर्ती प्रावधान भी कर सकते हैं जो उन्हें उद्घोषणा के लक्ष्य को पूरा करने लिए आवष्यक या वांछित प्रतीत होता हो, इन प्रावधानों में उन प्रावधानों का आंषिक या पूर्वरूप में स्थगित करने का प्रावधान भी सम्मिलित है जिसके अंतर्गत संविधान से संबंधित किसी निकाय या प्राधिकरण का संचालन होता है‘‘2’’

 

हमारे देष में राज्यपाल की स्थिति दोहरी है, एक तरफ तो वह राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष है तो दूसरी तरफ वह केन्द्र का प्रतिनिधि या अभिकर्ता है। सामान्य काल में राज्यपाल राज्य के संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। राज्यों में भी केन्द्र की तरह संसदीय शासन-व्यवस्था की स्थापना की गयी है, जिसमे संवैधानिक व्यवस्था के परिपालन हेतु केन्द्र एवं राज्यों में मंत्री परिषद है जिसकी सहायता एवं परामर्ष’ (।पक ंदक ।कअपबम) से ही राज्यपाल कार्य करेगा। परन्तु स्वविवेकीय मामलों के सम्बन्ध में वह स्वतन्त्र है। संविधान द्वारा स्वविवेकीय शक्तियों की कोई परिभाषा प्रस्तुत नहीं की गयी हैं। राज्यपाल का विवेक ही अन्तिम निर्णायक है। दो प्रावधान इसका अपवाद है। प्रथम, असम के राज्यपाल को राष्ट्रपति के अभिकर्ता के रूप में सीमान्त क्षेत्र के प्रषासन का अधिकार दिया गया है। इसके अतिरिक्त असम सरकार एवं जन-जाति क्षेत्र की जिला प्ररिषद् के मध्य राॅयल्टी सम्बन्धी विवाद का निर्णय राज्यपाल स्वविवेक से करता है। द्वितीय, राष्ट्रपति द्वारा जब किसी राज्यपाल को अधीनस्थ केन्द्र-प्रषासिक प्रदेष का प्रषासक नियुक्त किया जाता है तो राज्यपाल राष्ट्रपति के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है और उसका निर्णय अन्तिम होता है। श्री दुर्गादास बसु के अनुसार, ‘‘चूंकि स्वविवेकीय शक्ति असम के राज्यपाल को केवल दो सामान्य मामलों में प्राप्त है अतः संविधान मेंस्वविवेक से कार्य करनेशब्दों का उल्लेख एक सीमा तक सम्पादन का ही दोष है।’’ अतः राज्यपाल को मन्त्रि-परिषद् के परामर्श पर ही कार्य करना चाहिए। न्यायालय के अनुसार राज्यपाल बिना अपने मंन्त्रियों के परामर्ष के कार्य कर ही नही सकता है।2 तत्सम्बन्धी अभिसमयों का भी विकास हुआ है।‘‘3’’

 

संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्यपाल प्रत्यक्ष नीति से जनता द्वारा चुना जाता है और राज्य विधानमण्डल द्वारा महाभियोग लगाकर हटाया जा सकता है। आस्ट्रेलिया में राज्यों के गवर्नरों को ब्रिटिश क्राउन द्वारा आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री के परामर्ष पर नियुक्त किया जाता है।‘‘4’’ और आस्ट्रेलिया के राज्यों के गवर्नर आस्ट्रेलिया के गवर्नर जनरल के प्रति उत्तर दायी नहीं है। कनाडा के प्रान्तों के उप-राज्यपालों को सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त किया जाता है और वह उन्हें निष्चित एवं प्रमाणित आरोप पर ही अपदस्थ कर सकता है।‘‘5’’

 

राज्यपाल की राजनीतिक स्थिति:-

राज्य की राजनीतिक स्थिति ऐसी हो सकता है जबकि राज्यपाल के लिए मन्त्रिमण्डल की सलाह मानना असम्भव हो। यदि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलता है या मुख्यमंत्री को विधानमण्डल के बहुमत का विष्वास प्राप्त नहीं है या मुख्यमंत्री को प्राप्त बहुमत के समर्थन के सम्बन्ध में विवाद है तो प्रष्न उठता है कि ऐसी स्थिति में राज्यपाल को क्या करना चाहिए। यदि राज्य-मन्त्रि परिषद ऐसी कोई विधि परित करने या ऐसा कदम उठाने पर बल देता है जिससे संविधान का उल्लंघन होता है तो क्या राज्यपाल के लिए मन्त्रि-परिषद् के ऐसे परामर्ष को मानना आवष्यक है? कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जबकि वह राष्ट्रपति से ऐसे आदेष प्राप्त करे जो राज्य-मन्त्रि-परिषद् को स्वीकार हों। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को क्या करना चाहिए। यदि राज्य-मन्त्रि-परिषद् ऐसी कोई विधि पारित करने या ऐस कदम उठाने पर बल देता है जिससे संविधान का उल्लंधन होता है तो क्या राज्यपाल के लिए मंन्त्रि परिषद के ऐसे परामर्श को मानना आवष्यक है ? कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जबकि वह राष्ट्रपति से ऐसे आदेष प्राप्त करे जो राज्य-मन्त्रि-परिषद् को स्वीकार हों। ऐसी स्थिति में राज्यपाल को क्या करना चाहिए ! अतः राज्यपाल की स्थिति विवाद का प्रष्न बन गयी है। संविधान सभा में श्री नेहरू ने कहा था कि निर्वाचन राज्यपाल मनोनीत राज्यपाल की अपेक्षा पुथक्तावादी (एंव) प्रान्तीयता की भावानाओं को बढ़ावा देने वाला हो सकता है। ऐसी स्थिति में  केन्द्र के उसके साथ कम सम्बन्ध होंगे। अतः राज्यपाल से केन्द्र के अभिकर्ता या प्रतिनिधि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा की गयी है। संवैधानिक असफलता की स्थिति में उसे स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार प्राप्त है। ऐसी स्थिति में मंन्त्रि-परिषद से परामर्ष करना उसके लिए आवष्यक नहीं है। तब वह केन्द्र का अभिकर्ता होता है तथा संवैधानिक विफलता सम्बन्धी जो प्रतिवेदन वह केन्द्र को प्रस्तुत करता है उसे गुप्त रखना उसका कर्तव्य है। तत्पष्चात् केन्द्र के निर्देष के अनुसार ही उसे आचरण करना चाहिए। लेकिन जब तक राज्य में संविधान के अनुसार सामान्य स्थिति बनी रहती है तब तक वह विषुद्ध संवैधानिक अध्यक्ष है और उस अवस्था में मन्त्रि-परिषद का परामर्ष मानना उसका कर्तव्य है। संविधान सभा के सदस्यों के राज्यपाल तथा केन्द्रीय षासन के सम्बन्धों पर परस्पर विरोधी मत थे। श्री टी. टी. कृष्णमाचारी जिनके मत से डँा. अम्बेडकर सहमत थे, का कथन था कि ’’ मै इन समस्त विचारों का खण्डन करता हँू कि इस सदन के सदस्य मनोनीत गवर्नर को राष्ट्रपति का अभिकर्ता बनाना चाहते हैंै। परन्तु डँा. अम्बेडकर  ने बाद में एक प्रष्न के उत्तर में अपने पूर्व मत का खण्डन करते हुए कहा था कि ’’ प्रान्तीय शासकों को केन्द्रीय शासन के अधीन कार्य करना चाहिए। फलतः राज्यपाल को कुछ बातें राष्ट्रपति के विचारार्थ रोकनी पड़ेगी जिससे पता चल सके कि प्रान्तीय शासन को जिन नियमों के अधीन कार्य करना है वे संविधान या केन्द्रीय शासन की अधीनता में हैंै और उनका पालन हो रहा है। श्री महावीर त्यागी का मत इसी से मिलता-जुलता है। उनका कथन था कि राज्यपाल केन्द्र का अभिकर्ता या माध्यम है जिसके द्वारा केन्द्रीय नीति लागू की जायेगी या रक्षा की जायेगी। राज्यपाल को एक ओर केन्द्रीय नीति के संरक्षक के रूप में, तो दूसरी ओर सवंधिान के संक्षरक के रूप में कार्य करता चाहिए।‘‘6’’

 

व्यवहार में गर्वनर का पदः-

राज्यपाल के पद पर अधिकांषतः सत्तारूढ़ दल द्वारा अपने ही दल के व्यक्तियों को नियुक्ति किया जाता है। विभिन्न राज्यपालों के अपने कार्यकाल सम्बन्धी भिन्न-भिन्न अनुभव है। उत्तर प्रदेष के राज्यपाल श्री एच. पी. मोदी की अपने कार्यकाल सम्बन्धी स्मृतियँा सुखद है। वे विभागीय सचिवों एवं मुख्य सचिव से सीधा सम्पर्क रखते थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गोविन्दवल्लभ पन्त को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु अन्य राज्यों में ऐसा नहीं था। श्री श्रीप्रकाष (जो लगातार 12 वर्षो तक तीन राज्यों के राज्यपाल पद पर रहे) का कथन है कि सदैव संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे है। श्री वी. वी. गिरि उत्तर प्रदेष में राज्यपाल थे।‘‘7’’ उस समय श्री सम्पूर्णानन्द जी मुख्यमंत्री थे। श्री गिरि का कथन था कि राज्यपाल सुसुप्त सहयोगी नहीं है। वह ठीक प्रकार से तभी कार्य कर सकता है जब कि वह दूसरों पर हाबी हुए बिना गलतियों को रोंके। श्री वी. पी. मेनन के अनुसार राज्यपाल की स्थिति नाममात्र के अध्यक्ष जैसी है। उनका कथन् था कि राज्यपाल पर ब्रिटिषकाल की भँाति कँाग्रेसियों द्वारा अभी भी अविष्वास किया जाता है और वह प्रतिदिन की प्रषासनिक समस्याओं से अपरिचित रहता है। श्री पाटस्कर के अनुसार गर्वनर सवंधिान का रक्षक है। उन्होंने तो यहँा तक कहा हैं कि राज्यपाल अपने मन्त्रीमण्डल की अध्यक्षता तक करते थे।

दो-तीन अवसरों पर गर्वनर के आचरणों की तीव्र निदा हुई थी एवं वे तीव्र विवाद का विषय बन गये थें। फलस्वरूप राज्यपाल के पद को समाप्त करने की बात तक की गयी। 1959 , के केरल शिक्षा विधेयक के विरोध में राज्यव्यापी आन्दोलन चला था। राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। यह आन्दोलन साम्यवादी शासन  के विरूद्ध हुआ था। राज्यपाल में मन्त्रिमण्ड़ल के परामर्ष के बिना ही संवैधानिक शासन की विफलता की घोषणा की थी, फलतः राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। कुछ ने राज्यपाल के इसकार्य को असंवैधानिक ठहराया, तो दूसरों ने इसे उचित बताया था। स्मरणीय है कि केरल की नम्बूदरीपाद की सरकार की विधानसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त था। ऐसी स्थिति में क्या राज्यपाल को राज्य-मन्त्रिमण्डल के परामर्ष के बिना राष्ट्रपति को प्रतिवेदन नहीं देना चाहिए था़! क्ेरल के साम्यवादी शासन के मतानुसार राज्यपाल को मन्त्रिमण्डल के परामर्ष से ही प्रतिवेदन भेजना चाहिए था। जबकि केन्द्र का मत था कि राज्यपाल को स्वतन्त्र रूप से ज्ञापन देने का अधिकार प्राप्त है। स्मरणीय है कि केरल की साम्यवादी सरकार के शिक्षा विधेयक के विरूद्ध राज्यव्यापी जन-आन्दोलन फूटा पड़ा था एवं असन्तोष उग्रतर हो गया था। ऐसी स्थिति में यदि राज्य शासन एक पक्ष हो जाय तो राज्यपाल के लिए स्वविवेक से निर्णय करना स्वाभाविक हो जाता है।‘‘8’’

 

दूसरा विवाद पष्चिमी बंगाल से सम्बन्धित है। श्री अजय मुखर्जी की सरकार राज्य में व्याप्त अराजकता को रोकने में असमर्थ थी। राज्यपाल श्री धर्मवीर ने मुख्यमंत्री को शीघ्र ही विधानसभा को आहूत करके अपना बहूमत प्रमाणित करने का निर्देष दिया था। लेकिन मुख्यमंत्री ने राज्यपाल द्वारा प्रस्तावित तिथि के कुछ दिन के पष्चात् विधानसभा का सत्र आहुत करने का निष्चय किया था। इस पर राज्यपाल ने विधानसभा एंव मन्त्रिमंडल दोनों को भंग करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। गर्वनर श्री धर्मवीर का निष्चय उन परिस्थितियों मंे ठीक था।‘‘9’’

 

राजभवन बनें वृद्धाश्रम:-

यह राजनीति का अटल पक्ष है कि बीमार, बुजुर्ग शारीरिक रूप से अक्षम हो चुके नेताओं को राज्यपाल पद देकर उनका पुनर्वास दिया जाता रहा है. लंबे समय से यह हास्यास्पद सिलसिला चल रहा है ऐसा नेता जिसे आंख से ठीक-ठीक दिखाई दे, कान से ऊंचा सुनता हो, स्मृति जवाब दे गई हो, और बिना सहारे के चल नही सकता हो, राज्यपाल पद के लिए जाने क्यों उपयुक्त माना जाता है। हमारे किसी राज्य के ऐसे गवर्नर को अमेरिका के किसी राज्य का गवर्नर (मिसाल के तौर पर कैलिफोर्निया का गवर्नर एर्नाल्ड स्वार्जनेगर) देख ले तो सचमुच हैरत में पड़ जाएगा. बाॅडीबिल्डर और फिल्म स्टार रहे स्वार्जनेगर को लगेगा कि वह राजभवन आया है अथवा किसी वृद्धाश्रम में। हमारा सिस्टम ही ऐसा है जिसमें राजनेता उम्र के 70 से 80 वर्ष तक का पड़ाव राजनीति के हरे-भरे् नंदनवन में बिताना चाहते है. जब उन्हें सक्रिय राजनीति से हटाने का फैसला होता है तो देखा जाता है कि किस राजभवन में जगह खाली है या होने वाली है. वहा उन्हें राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाता है उनके स्वास्थ्य की वहां सरकारी खर्च पर देखभाल भी हो जाती है सरकारी विधेयकों पर सेक्रेटरी की बताई जगह पर हस्ताक्षर करने, राष्ट्रीय दिवसों पर सलामी देने तथा केन्द्र के इषारे पर विपक्षी पार्टी की राज्य सरकार के खिलाफ रिपोर्ट भेजने का काम छोड़ दिया जाए तो उनके पास करने के लिए कुछ काम नहीं होता किसी सरकारी नौकरी में उम्मीदवार की फिजिकल फिटनेस देखी जाती है. राज्यपाल पद के लिए अनफिट से अनफिट नेता भी चल जाता है. पिछले पिछले दिनों नजाने क्या सोचकर देंवेद्रनाथ द्विवेदी को गुजरात का राज्यपाल मनोनीत किया गया जो कभी उत्तरप्रदेष के एडवोकेट जनरल और पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के निकटवर्ती थे शपथ लेने के पहले ही वे चल बसे।‘‘10’’

 

चुनाव लड़ने के लिए जिन्हें पार्टी ने अपात्र माना वही अब उन्हें राज्यपाल पद के लिए सुपात्र मान रही है. पं. नेहरू ने अपने परम मित्र कैलाषनाथ काटजू को मध्यप्रदेष का मुख्यमंत्री बना दिया था जो कि सुन नहीं पाते थे. काटजू में तमाम योग्यताएं थी, कानून के पंडित थे परंतु किसी की बात उनके कान में पड़ती ही नहीं थी. मन में आया तो सुनने की मषीन लगा ली, नही ंतो निकाल कर रख दिया, सामनेवाले समझदार हुआ तो संकेत समझकर खुद ही नमस्कार कर वहां से चल देता था. स्व. मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री रहते हुए अपने मित्र प्रभुदास पटवारी को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया था. वे वृद्ध एवं अस्वस्थ थे. लोगो को उनकी इस नियुक्ति से आष्चर्य हुआ था. मध्यप्रदेष में सकलेचा सरकार के समय पुनाचा नामक राज्यपाल थे उनका भी स्वास्थ्य दुरूस्त नहीं था. किसी को उपकृत करने, सक्रिय राजनीति से हटाकर उसके राज्य से दूर भेजने के लिए एक ही उपाय है- राज्यपाल बना देना स्व. वसंतदादा पाटिल को महाराष्ट्र की राजनीति से हटाने के लिए उन्हें राजस्थान का गवर्नर बनाया गया था जहां उनका मन नहीं लगा. वे अपने गृह राज्य वापस आने के लिए कसमसाते रहे. सुधाकरराव नाईक को हिमाचल प्रदेष का राज्यपाल बनाया गया था. उसी प्रकार प्रभा राव को षिमला के राजभवन भेजा गया. आखिर राज्यपाल पद का प्रयोजन क्या है? अंग्रेजों के जमाने में गवर्नर दिल्ली में बैठे वाइसराय को प्रांत की सरकार के कामकाज के बारे में रिपोर्ट देता था. अब भी केंद्र सरकार विपक्षी पार्टी द्वारा शासित राज्य सरकार की बिगड़ती कानून- व्यवस्था के आधार पर बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए राज्यपाल की रिपोर्ट का सहारा लेती है. राज्यों में जब मुख्यमंत्री सरकार का नेतृत्व करते हैं तो राज्यपाल पद का कैन सा औचित्य है ? परंपरा के रूप में इस कब तक निभाया जाता रहेगा ? यदि राज्यपाल पद समाप्त कर दिया जाए तो कोई पहाड़ नहीं टूट पडे़गा बल्कि प्रषासनिक खर्च भी कम होगा.

 

यदि पद कायम रखना ही है तो उनकी उपयोगिता पर भी विचार करना होगा क्या केवल मंत्रिमंडल द्वारा पारित विधेयकों और औपचारिक रूप से हस्ताक्षर करने, राजभवन में देषी-विदेषी अतिथियों का स्वागत करने, विधानमंड़ल सत्र में सरकार का तैयार किया हुआ अभिभाषण पढ़ने और राष्ट्रीय दिवस पर परेड की सलामी लेने के लिए राज्यपाल होना चाहिए ? संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त राज्यपाल भी मन से दल-निरपेक्ष नहीं हो पाते, वे सत्तारूढ़ दल के प्रति झुके रहते है, केंद्र अपने एजेंट के रूप में उनसे काम लेता है, यह कितना विचित्र लगता है, जब कोई राज्यपाल अपने पद से हटने के बाद फिर किसी राज्य का मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री बनकर दलीय राजनीति करने लगे. केंद्र सरकार नेताओं को ऐसे ही शतरंज के मोहरों की तरह नचाती है. इसके अलावा राज्यपाल रखना ही है तो क्यों नहीं उस पद पर शारीरिक मानसिक रूप से सक्षम अनुभवी, आकर्षक व्यक्ति को आसीन किया जाए. राजभवन को वृद्धाश्रम या आरामगाह बनाने का कोई प्रयोजन हो बल्कि राज्यपालों को स्वयं ही लोक हितकारी कार्यो की जमीनी समीक्षा करनी होगी।‘‘11’’

 

शिक्षा व्यवस्था की निगरानी करना राज्यपालों की महती दायित्व होना चाहिये, अगर कोई राज्यपाल अपने पांच वर्षो के कार्यकाल में प्रतिमाह दो स्कूलों, दो कालेजों को निरीक्षक करने का प्रोग्राम बना ले तो निष्चय ही उन स्कूलों की भौतिक कायाकल्प के साथ वहाँ की शिक्षा व्यवस्था का स्तर ऊँचां उढ जायेगा। इसी तरह शासकीय अस्पतालों का निरीक्षण करने संकल्प राज्यपाल ले लें तडे निष्चय ही लोक हितकारी प्रभाव अपने स्तर से उपर उठ जायेगा। राज सरकार की लोकहितकारी योजनायें जिसमें केन्द्रीय योजनाएं भी शामिल हो की निरीक्षण करने से उन योजनाओं का सही मूल्यांकन हो सकेगा। यद्यपि यह काम कार्यपालिका को शासकीय योजनाओं के सही परीचालन का दायित्व निर्वहन करना चाहिए परनतु जमीनी सत्यापन से ऐसा प्रतीत होने लगा है  कि शासकीय योजनाएँ वास्तविक व्यक्ति के लाभ से कोसो दूर है। इसलिए कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते राज्यपाल को उसकी समय-समय पर निगरानी करते रहना चाहिए एवं यह निगरानी राज्यभवन में बैठकर सिर्फ कागजी नही होना चाहिए, बल्कि ऐसी योजनाओं का भौतिक मुल्याकन किया जाना चाहिए।‘‘12’’

संविधान के अधीन राज्यपालों के तीन रूप हैं- (1) राज्य मंत्रिमण्डल की सलाह मानना, (2) केन्द्र के एजेन्ट के रूप में काम करना, (3) स्वविवेक से कार्य करना जिसमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को मानना आवष्यक नहीं। स्वविवेक की स्थितियों में राज्यपाल की शक्यिाँ राष्ट्रपति से भी अधिक हैं। विधान सभा भंग करना, मुख्यमंत्री को बर्खाष्त करना, संवैधानिक तन्त्र विफल होने पर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिष करना आदि शक्तियों का प्रयोग राज्यपालों ने गलत-सही कई बार किया है। एक अच्छा राज्यपाल वह है जो स्वविवेक की शक्तियों के प्रयोग के साथ केन्द्र का आज्ञाकारी सेवक बन जाए।

 

राज्यपाल का पद प्रायः मजाक का विषय बन गया है जिन राजनीतिज्ञों का उपयोग प्रधानमंत्री अन्यथा नहीं कर पाते उन्हें राज्यपाल पद पर नियुक्त कर दिया जाता है।

 

सामान्यतया राजयों में मन्त्रिपरिषद् और राज्यपाल के संबंध वही हैं जो केन्द्र में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल तथा राष्ट्रपति के हैं। किन्तु राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों में एक महत्वपूर्ण अन्तर है और वह यह कि संविधान में राष्ट्रपति को अपनेविवेक’ (कपेबतमजपवद) से कुछ करने की शक्ति नहीं प्रदान की गयी है जबकि कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल अपने स्वविवेक से कुछ कार्य कर सकता है। ‘‘13’’

 

अनु0 163 यह उपबन्धित करता है कि जिन बातों में उससे संविधान के उपबन्धों के अनुसार यह अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, उसकों छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का निर्वहन करने में सहायता और मन्त्रणा देने के लिए मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। इस प्रष्न की किसी न्यायाल में जाँच नहीं की जाएगी कि क्या मन्त्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी और यदि दी तो क्या दी। ‘‘14’’

 

उपर्युक्त उपबन्ध से यह स्पष्ट है कि जहाँ पर राज्यपाल को अपने विवेकानुसार निर्णय देना है, वहाँ पर वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्ष के अनुसार कार्य करने को बाध्य नहीं हैं तथा मन्त्रिपरिषद् के परामर्ष की कोई आवष्यक नहीं है। खण्ड (2) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यदि कोई प्रष्न उठता है कि क्या कोई विषय ऐसा है जिस पर राज्यपाल को संविधान के अनुसार विवेक से कार्य करना है , तो इस प्रष्न पर राज्यपाल का निर्णय ही अन्तिम होगा। राज्यपाल द्वारा किये गये किसी कृत्य की वैधता पर इस आधार पर कोई आपत्ति नहीं की जायेगी कि उसे स्वविवेक का उपयोग करना चाहिये था अथवा नहीं।‘‘15’’

 

संविधान राज्यपाल के विवेकाधिकार की कहीं पर व्याख्या नहीं करता है। इससे एक प्रष्न यह उठता है कि क्या वास्तव में राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल भी मात्र सांविधानिक प्रधान है जिसे मन्त्रिपरिषद् के परामर्ष पर ही सारे कार्य करने हैं और उसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है या वास्तविक कार्यपालिका शक्ति उसी में निहित है ? (वस्तुतः अनु0 163 की भाषा गवर्नमंेट आॅफ इण्डिया ऐक्ट, 1935 की धारा 50 (1) का आंषिक पुनरूद्धरण मात्र है।) संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्यों को राज्यपाल के अधिकार आतंककारी दिखाई पड़े। उनके समक्ष राज्यपाल का स्वरूप साम्राज्यवादी तथा स्वच्छन्द अधिकारों वाला था। इस तरह से 1935 के अधिनियम की धारा का राज्यपाल के विषय में उद्धरण रखते हुए वे शंकालु हो उठे थे। किन्तु भारतीय संविधान में संसदात्मक पद्धति की सरकार की स्थापना के कारण उनकी शंका निराधार थी, क्योंकि ऐसी प्रणाली में मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यो के लिए राज्य विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है तथा गवर्नर उसके परामर्ष के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इस स्थिति में यह आषंका निर्मूल हो जाती है कि राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्षो की अवहेलना कर सकेगा।

 

सुनील कुमार बोस बनाम चीफ सेक्रेटरी, बंगाल सरकार‘‘16’’ के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह अवलोकन किया था कि ‘‘राज्यपाल वर्तमान संविधान के अन्तर्गत मन्त्रिपरिषद् के परामर्ष के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता है। गवर्नमेंट आॅफ इण्डिया ऐक्ट, 1935 में दूसरी परिस्थिति थी- इस संविधान के अधीन राज्यपाल को स्वविवेक के अनुसार या अपने व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है और इसलिए राज्यपाल को अपने मन्त्री के परामर्ष पर ही कार्य करना है।’’ राम जवाया कपूर बनाम स्टेट आफ पंजाब‘‘17’’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि हमारे संविधान के अधीन भारत में ब्रिटिष संसदीय ढंग की सरकार की स्थापना की गयी है, जिसका मूलभूत सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति और राज्य के राज्यपाल संविधानिक प्रधान होते हैं और वास्तविक कार्यपालिका-षक्ति मन्त्रि-परिषद् में निहित होती है। शमषेर सिंह बनाम पंजाब राज्य‘‘18’’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपाल सांविधानिक प्रधान हैं और वे अपनी शक्तियों और कार्यो का पालन मन्त्रिपरिषद् की सहायता और मन्त्रणा से करते हैं कि वैयक्ति रूप से, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जिनमें राज्यपाल को अपने स्वविवेक से कार्य करने की जरूरत होती है। इस मामले में पंजाब राज्य के दो परिवीक्षाणाधीन (चतवइंजपवदमत) न्याययिक अधिकारी को उनके पदों से पदच्युत कर दिया गया था। पदच्युति का आदेष सम्बन्धित मन्त्री द्वारा दिया गया था। अपीलार्थियों ने यह दलील दी कि नियुक्ति और पदमुक्ति की शक्ति राज्यपाल की वैयक्ति शक्ति है, जिसे मन्त्रियों या सचिवों को प्रत्योजित (कमसमहंजम) नहीं किया जा सकता है।

 

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधीनस्थ न्यायालयों के सदस्यों की नियुक्ति और पदमुक्ति कार्यकारिणी के कार्य है, जिनका प्रयोग राज्यपाल अपने मन्त्रिपरिषद् की सलाह से करता है। जहाँ कहीं संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपाल केव्यक्तिगत समाधानशब्दावली का प्रयोग किया गया हैं - उनका वास्तविक अर्थ है, मन्त्रिपरिषद् का समाधान। यह राष्ट्रपति और राज्यपाल का वैयक्तिक समाधान नहीं है। इस कथन के साथ न्यायालय ने सरदारी लाल बनाम भारत संघ‘‘19’’ में दिये गये अपने निर्णय को उलट दिया।

 

राज्यपाल अपनेविवेकके अनुसार केवल उन्हीं विषयों में कार्य कर सकता है जिनमें उससे संविधान द्वारा या उसके अन्तर्गत ऐसा करने को स्पष्ट रूप से कहा गया है।‘‘20’’

 

संविधान की अनुसूची 6 के अनुच्छेद 9(2) तथा 18 (3) अनु. 371 ;पद्ध ;इद्ध ंदक ;कद्ध ंदक ;2द्ध ;इद्ध ंदक ;द्धि अनु. 239 के अधीन असम की जनजातियों के प्रषासन के सम्बन्ध में राज्यपाल को अपने स्वविवेक का प्रयोग करने का स्पष्ट रूप से उल्लेख है। सामान्यतया वह एक संविधानिक प्रधान की हैसियत से मन्त्रिपरिषद् के परामर्षानुसार कार्य करेगा, किन्तु परिस्थितियों में वह संविधानिक एवं प्रभावी रूप से अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है जहाँ पर मन्त्रि परिषद् तथा उसके बीच किसी मामले पर मतभेद उठ खड़ा हुआ हों। इस बात में उसका निर्णय अन्तिम होना इस बात का घोतक है कि राज्यपाल उन विषयों पर मन्त्रिपरिषद् की राय के बिना परिस्थ्तिियों के अनुसार अपने विवेक से कार्य कर सकता है, भले ही उनका संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया हो। ऐसी परिस्थितियाँ, जिनमें राज्यपाल अपनी वैवेकिक शक्ति का प्रयोग कर सकता है, निम्नलिखित हैं- (1) मुख्यमंत्री की नियुक्ति (2) मन्त्री को अपद्रस्थ करना, (3) विधान सभा को भंग करना, (4) अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत को संकटकालीन स्थिति की घोषणा की सिफारिष करना।‘‘21’’

 

निष्कर्ष एवं सुझावः

एक समय था जब राज्य का कर्तव्य समाज में केवल शांन्ति व्यवस्था बनाये रखना और जनता के प्राण, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा तक ही सीमित माना जाता था। अब उक्त धारणा में आमूल परिवर्तन हो चुका है। आज हम एक कल्याणकारी राजय के नागरिक हैं, जिसका कर्तव्य जन साधारण के सुख एवं समृद्धि की अभिवृद्धि (चतवउवजम) करना है। इसलिए राज्य का कत्र्तव्य है कि यह जनता के हित और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना के लिए नीति निर्देषक सिद्धान्तो से उल्लेखित उद्धेष्यों को यथाषक्ति कार्यान्वित करने का प्रयास करें।

 

डां. अम्बेटकर ने संविधान-निर्मात्री सभा में नीति-निदेषक तत्वों में अनतर्निहित उद्ेष्यों के बारे में स्पष्टीकरण करते हुए निम्नलिखित विचार व्यक्त किया था-

 

हमारा संविधान संसदीय प्रजातन्त्र की स्थापना करता है। संसदीय प्रजातन्त्र से तात्पर्य है- एक व्यक्ति एक वोट जिसका वास्तविक अर्थ है ‘‘राजनैतिक लोक तंत्र’’ राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना का उद्ेष्य यह है कि हम कुछ निष्चित लोगों को यह अवसर दें कि वे निरंकुषवाद को कायम रख सकें। जब हमने राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक लोकतन्त्र का आदर्ष भी स्थापित करें। प्रष्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निष्चित तरीका है जिससे हम आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना कर सकते हों ? विभिन्न ऐसे तरीके हैं जिनमें लोगो का विष्वास है कि आर्थिक लोकतन्त्र लाया जा सकता है। बहुत से लोग है जो व्यक्तिगत उत्कर्ष को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतन्त्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतन्त्र मानते हैं, और बहुत से लोग कम्युनिज्म की स्थापना को सर्वोत्तम आर्थिक समाजवाद का रूप मानते हैं। इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतन्त्र लाने के विभिन्न तरीके है, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है, उसमें जानबूझ कर नीति-निदेषक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निष्चित या अनम्य नहीं है। हमने इसीलिए विविध तरीकों से आर्थिक लोकतन्त्र के आदर्ष तक पहुंचने के लिए चिन्तनषील लोगों के लिए पर्याप्त स्थान ;ेबवचमद्ध छोड़ा है। इस संविधान की रचना में हमारे वस्तुतः दो उद्ेष्य हैं- (1) राजनीतिक लोकतन्त्र का रूप निर्धारित करना, और (2) यह स्थापित करना कि हमारा आदर्ष आर्थिक लोकतन्त्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार, जो कोई भी सत्ता में हो, आर्थिक लोकतन्त्र लाने का प्रयास करेगी।

 

इस दिषा में बहुत कुछ कार्य किया जा चुका है, और लगातार किया जा रहा है। किन्तु अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक असमानता अभी देष में ज्यों-की-त्यों मौजूद है। हमें देष के लोगों के जीवन-स्तर को उठाना है, बेकारी को दूर करना हैं तथा बहुचर्चित समाजवाद की स्थापना करनी है। इस ओर हमंे और भी अधिक लगन से कार्य करना है। यद्यपि सरकार ने इस दिषा में जो कुछ किया है, कम है, किन्तु इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि सरकार का कार्य इस दिषा में उत्साहवर्द्धक और सराहनीय है। निदेषकों के लागू करने की प्रक्रिया एक निरन्तर प्रक्रिया है और जो भी सरकारें सत्ता में आयेंगी वे इन्हें कार्यान्वित करने के लिए यथाषक्ति प्रयास करेंगी।‘‘22’’

 

संविधान के अनुच्छेद 156 (1) से आंतकित बहुते राज्यपाल केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की कठपुतली की तरह कार्य करते है. यह सर्वथा निंदनीय तथा प्रजातंत्र का उपहास है और भारतीय संविधान में निहित संघीय व्यवस्था (फेडरल सिस्टम) पर गहरा कुठाराघात है. यदि संघीय व्यवस्था को ....बनाए रखना है तथा राज्यपालों को केंद्रीय मंत्रीपरिषद की कठपुतली नहीं बनने देना है तो यह आवष्यक है कि राज्यपालों की नियुक्ति और बर्खास्तगी की प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए, उसमें प्रदर्षिता लाई जाए इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संविधान में संषोधन करना आवष्यक है। ‘‘23’’

 

संविधान में संषोधन करते समय कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना अपरिहार्य होगा. सबसे महत्वपूर्ण आवष्यकता यह है कि केवल ऐसे व्यक्तियों को राज्यपाल के पर पर नियुक्त किया जाए जो दलगत राजनीति से सर्वथा परे हों, किसी भी राजनैतिक दल से जिनका कभी कोई लेना-देना रहा हो. साथ ही नियुक्ति की प्रक्रिया पक्षपात विहीन और एकदम पारदर्षी हो. इसके लिए यह आवष्यक है कि राष्ट्रपति को राज्यपाल के पद के लिए नाम की अनुषंसा केन्द्रीय मंत्रिपरिषद करे क्योंकि इसके सदस्य एक ही दल या आज की राजनीति में एक ही गठबंधन से संबंद्ध होते है, और इसलिए वे दलगत राजनीति से ऊपर नहीं हो सकते, राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के लिए नाम की अनुषंसा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष की अध्यक्षता में बनी एक ऐसी समिति करे जिसके अन्य सदस्य प्रधानमंत्री तथा लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता हों अनुषंसित नाम की लोकसभा तथा राज्यसभा द्वारा अभिपुष्टि किए जाने के बाद ही राष्ट्रपति उस व्यक्ति को राज्यपाल के पद पर नियुक्त करें अन्यथा नहीं राज्यपाल का कार्यालय निर्बाध रूप से पाँच वर्षो का हो ताकि वे निर्भीक होकर जनहित में निष्पक्ष भूमिका निभा सकें. वे किसी प्रकार से आतंकित रहे, उनके सिर पर बर्खास्तगी की तलवार लटकती रहे. केवल ऐसी स्थिति में ही जब वे अनाचार या संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल कार्य करे तो उन्हें बर्खास्त किया जाए और वह भी राष्ट्रपति या केंद्रीय मंत्रिपरिषद द्वारा नहीं प्रत्युत लोकसभा या राज्यसभा में महाअभियोग लगाने के उपरांत उसके लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों में ही पृथक-पृथक दो-तिहाई मतों के बहुमत से पुष्टि हो जाने पर अन्यथा नहीं तो संविधान के अनुच्छेद 156 (1) को तो तत्काल विलोपित किया जाना चाहिए।

 

राज्यपाल के पद को प्रभावी एवं अधिक उपयोगी बनाने के लिए निम्न सुझाव लाभदायक हेा सकते है:

(1)   राज्यपाल के पद पर निर्वाचनों में पराजित दलीय राजनीतिज्ञों की नियुक्ति नही की जानी चाहिए।

(2)  राज्यपाल की नियुक्ति में मुख्यमन्त्रियों का परामर्ष लिया जाना चाहिए। स्मरणीय है कि केन्द्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति करते समय सम्बन्धित राज्य के मुख्यमन्त्री के विचार ज्ञात कर लिया जाता है। यह एक स्वस्थ परम्परा है।

(3)   राज्यपाल को नाममात्र के अध्यक्ष के स्थान पर सही अर्थो में संवैधानिक अध्यक्ष की भुमिका निभानी चाहिए।

(4)   राज्यपाल को निष्पक्षतापूर्वक आचरण करना चाहिए। उसे केन्द्र से परामर्ष लिए निरन्तर नही दौड़ना चाहिए; लेकिन विषम स्थिति उत्पन्न होने पर तुरन्त केन्द्र को सूचित करना चाहिए।

(5)   राज्यपाल तथा विधानसभा एवं मन्त्रिमण्डल के सम्बन्धों की अधिक स्पष्ट व्याख्या करने की आवष्यकता है। राज्यपाल के आदेष पर विधानसभा का तुरन्त अधिवेषन बुलाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(6)   राज्यपाल के स्वविवेकीय अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या की जानी चाहिए।

(7)   राज्यपाल को सरकार के कार्यकाज की समय-समय पर भौतिक सत्यापन करना चाहिये।

(8)   राज्य की राजनीति में राज्यपाल की भूमिका उसके व्यक्तित्व तथा मुख्यमन्त्री एवं उसके सम्बन्धों पर निर्भर करती है।

 

शिक्षा व्यवस्था की निगरानी करना राज्यपालों की महती दायित्व होना चाहिये, अगर कोई राज्यपाल अपने पांच वर्षो के कार्यकाल में प्रतिमाह दो स्कूलों, दो कालेजों को निरीक्षक करने का प्रोग्राम बना ले तो निष्चय ही उन स्कूलों की भौतिक कायाकल्प के साथ वहाँ की शिक्षा व्यवस्था का स्तर ऊँचां उढ जायेगा। इसी तरह शासकीय अस्पतालों का निरीक्षण करने संकल्प राज्यपाल ले लें तडे निष्चय ही लोक हितकारी प्रभाव अपने स्तर से उपर उठ जायेगा। राज सरकार की लोकहितकारी योजनायें जिसमें केन्द्रीय योजनाएं भी शामिल हो की निरीक्षण करने से उन योजनाओं का सही मूल्यांकन हो सकेगा। यद्यपि यह काम कार्यपालिका को शासकीय योजनाओं के सही परीचालन का दायित्व निर्वहन करना चाहिए परनतु जमीनी सत्यापन से ऐसा प्रतीत होने लगा है  कि शासकीय योजनाएँ वास्तविक व्यक्ति के लाभ से कोसो दूर है। इसलिए कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते राज्यपाल को उसकी समय-समय पर निगरानी करते रहना चाहिए एवं यह निगरानी राज्यभवन में बैठकर सिर्फ कागजी नही होना चाहिए, बल्कि ऐसी योजनाओं का भौतिक मुल्याकन किया जाना चाहिए।  

 

पाद टिप्पणी एवं संदर्भग्रन्थ सूचीः-

1ण् मध्य प्रदेश, बिहार एवं उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 द्वारा अंतः स्थापित।

2ण् आर.एस.मैथ्यू बनाम कन्ट्रोलर आॅफ एन्टेª एक्जामिनेशन, त्रिवेन्द्रम, . आई. आर. 1997 केरल 218.

3ण् एम्परर बनाम शिवनाथ, 0 आई0 1945, पी.सी. 163

4ण् स्टेट आॅफ उत्तर प्रदेश बनाम मोहम्मद नईम, 0आई0 आर0 1964 एस0 सी0 703.

5ण् के0 बल्लभ बनाम कमिश्नर आॅफ इन्क्वायरी, 0 आई0 आर0 1969 एस0 सी0 258.

6ण् सूर्य नारायण बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया, 0आई0 आर0 1982, राजस्थान।

7ण् इण्डियन यूनियन मुस्लिम लीग बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया, 0 आई0 आर0 1998 पटना 156.

8ण् रामेश्वर प्रसाद बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया, 0 आई0 आर0 2006 एस0 सी0 980.

9ण् हरगोविन्द बनाम रघुकुल, 0 आई0 आर0 1979 एस0 सी0 1109.

10ण्  राज्यपाल की परिलब्धियाँ, भत्ते और विशेषाधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2009

11ण्  राम जवाया कपूर बनाम स्टेट आॅफ पंजाब, 0 आई0 आर0 1955 एस0 सी0 549 शमशेर सिंह बनाम स्टेट आॅफ पंजाब, 0 आई0 आर0 1974 एस0 सी0 2192, जयन्ती लाल अमृत लाल बनाम एफ0 एन0 राणा, 0 आई0 आर0 1964 एस0 सी0 648, राव वीरेन्द्र सिंह बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया, 0 आई0 आर0 1968, पंजाब एण्ड हरियाणा 441

12ण्  शमशेर सिंह बनाम आॅफ पंजाब, 0 आई0 आर0 1974 एस0 सी0 2192.

13ण्  एम0 रामचन्द्र राव बनाम रेवेन्यू डिविजनल आॅफिसर, (1956, आन्ध्र प्रदेश डब्ल्यू0 आर0 1074.

14ण्  के0 एम0 नानावती बनाम स्टेट आॅफ बम्बई, 0 आई0 आर0 1961 एस0 सी0 112.

15ण्  तारा सिह बनाम डायरेक्टर, 0 आई0 आर0 1958. पंजाब 302.

16ण्  ।प्त् 1950 कलकत्ता 274

17ण्  ।प्त् 1955 एस.सी. 549

18ण्  1974 (2) एस.सी.सी. 831

19ण्  1971 एस.सी.सी. 411

20ण्  0 आई0 आर0 2011 एस0 सी0 1216.

21ण्  सतपाल बनाम स्टेट आॅफ हरियाणा, 0 आई0 आर0 2000 एस0 सी0 1702.

22ण्  लखीनारायण दास बनाम प्राविंस आॅफ बिहार, 0 आई0 आर0 1950, एफ0 सी0 59, उपेन्द्रलाल बनाम नारायणी देवी, 0 आई0 आर0 1968, मध्यप्रदेश 89, स्टेट आॅफ पंजाब बनाम सतपाल डांग, 0 आई0 आर0 1969 एस0 सी0 903.

23ण्  0 आई0 आर0 2005 आन्ध्र प्रदेश 10.

 

 

Received on 20.01.2018                Modified on 20.02.2018

Accepted on 11.03.2018            © A&V Publications All right reserved

Int. J. Rev. and Res. Social Sci. 2018; 6(1):75-85.